कालनेमि: भाग 1

यूँ रात्रि गए, लंकापति रावण को अपने आवास पर देखकर कालनेमि पहले ही चौंका हुआ था. उसपर उनके अकस्मात् उसे युद्ध में उतरने को कहने पर वह और भी असहज हो गया. उसने लंकेश को बैठाकर उन्हें सारी बात अच्छी प्रकार समझाने को कहा. लंकेश बहुत उद्विग्न थे. उनके दश-मुखों पर रह-रहकर चिंता साफ़ दिखाई दे रही थी. कुछ सोचकर वे बोले, “कालनेमि! लंका और लंकापति को तुम्हारी देशभक्ति की आवश्यकता है. तुम्हें अपने देश के लिए अपना दायित्व पूर्ण करना है.”

राम-रावण युद्ध और उसकी पृष्ठभूमि से कालनेमि भी अनभिग्य नहीं था. किन्तु गत दिवसों में उसने जो लंका के विनाश के समाचार सुने, उनको सुनकर उसका विश्वास डगमगाने लगा था. उसने फिर कहा, “लंकेश! कृपया विस्तार से बताएं. मैं किस प्रकार अपने देश की सेवा कर सकता हूँ?”

वे लंकेश, दशानन और बीस भुजाओं वाले, उठ खड़े हुए. वे किसी बात की शीघ्रता में थे. उन्होंने उठकर टहलना आरंभ कर दिया. यदि कालनेमि का आवास बड़ा न होकर किसी साधारण सैनिक के घर की भांति होता तो कदाचित लंकेश की काया से ही टकराकर टूट जाता. कुछ देर बाद, सम्भवतः शब्दों का आंकलन करने के उपरांत लंकेश ने कहा, “राम से चल रहे युद्ध से तो तुम अनभिग्य नहीं हो, कालनेमि. किन्तु तुम्हें, सम्भव है, ज्ञात न हो कि हमारा प्रिय भाई कुंभकर्ण वीरगति को प्राप्त हो गया है. उसके प्रतिशोध के रूप में इन्द्रजीत ने लक्ष्मण को शक्ति से हताहत कर दिया है. परन्तु हनुमान सुषेण वैद्य को ले भागा है. और सम्भवतः इसीलिए वह वानर हिमालय की ओर जाने को अग्रसर है. हमें हमारे गुप्तचरों ने सूचना दी है.”

“कुंभकर्ण के विषय में मुझे ज्ञात हुआ, लंकेश. इसका मुझे शोक भी है किन्तु यदि हनुमान हिमालय जा रहा है तो इसमें मेरा योगदान कहाँ पर आया?”

“हम चाहते हैं कि तुम उस वानर को मार्ग में रोको. वह अवश्य ही किसी औषधि की खोज में उधर प्रयाण करने वाला है. तुम्हें उसे मार्ग में भटकाना है और उसका वध करना है.” लंकेश बहुत ही आश्वस्त लग रहे थे. किन्तु कालनेमि हनुमान की भूतकाल की लीलाओं को भूला नहीं था. वह उसकी शक्तियों से अवगत था. वह बोला, “हनुमान का वध?”

लंकेश के दसों शीश एक साथ हँसे. और फिर प्रथम मुख से कहा, “तुम्हें चिंतित होने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है, कालनेमि. वह हनुमान केवल एक तुच्छ वानर है.”

“बाली भी एक वानर ही था, लंकेश.” कालनेमि अनायास ही बोल पड़ा. किन्तु फिर अपने वाक्य पर पछताने लगा.

त्रिलोक विजयी रावण को भी एक क्षण में दीन-क्षीण करने का सामर्थ्य इस नाम में था. बाली था केवल एक वानर ही किन्तु उस वानर ने एक बार स्वयं लंकेश का मान-मर्दन किया था. यह बात तब की है जब रावण के बराबर कोई राजा नहीं था और रावण ने सदा ही वानरों और मनुष्यों को तुच्छ माना. इसी कारण उसने प्रथम ब्रह्मा से वरदान में वानर और मानव को छोड़ बाकी सब जीवों से सुरक्षित रहना माँगा. और इसी मद में चूर एक बार रावण ने किष्किंधा के राजा बाली को युद्ध के लिए ललकारा. फलस्वरूप, बाली ने उसे सरलता से अपनी कांख में दबा लिया और लंकापति का गर्व हनन किया.

कदाचित उस दृश्य को स्मरण करके ही लंकेश फट पड़े. वे बोले, “तुम कहना क्या चाहते हो?”

“मेरे वाक्य को धृष्टता न समझें, महाराज. मैं यह कहना चाहता हूँ कि एक बुद्धिमान और आप जैसे वेदपाठी नरेश को अपने शत्रु को दुर्बल नहीं मानना चाहिए. जिस वानर बाली ने स्वयं लंकेश को कष्ट दिया उसे राम ने ही मारा है जिसका कि यह हनुमान एक सेनापति है.”

कालनेमि की बात सुनकर भी जैसे लंकेश पर प्रभाव न पड़ा. उनका दूसरा शीश घृणित स्वर में बोला, “मारा परन्तु कैसे? छल से छिपकर. बाली के ही भाई सुग्रीव को चारे के रूप में प्रयोग करके. इसमें क्या वीरता और क्या शौर्य?”

“आपकी बात उचित है, लंकेश. परन्तु मैं जहाँ तक जानता हूँ वह यह है कि केवल वही योद्धा बाली को मार सकता था जो एक ही बाण से दुन्दुभि की अस्थियों और सात ताड़ के वृक्षों को ढहा देगा. और फिर छिपकर मारने में उसकी युक्ति थी क्योंकि यह तो स्वयं आप भी जानते हैं कि जो बाली के समक्ष जाता उसकी आधी शक्ति बाली में समाहित हो जाती. और बाली का वध करने का कारण भी उसने वही दिया था जिस कारण से वह स्वयं वन-वन भटक रहा था.”

“क्या अर्थ है इसका?”

“अर्थात बाली ने सुग्रीव की पत्नी को छीन लिया था. इसी प्रकार राम भी अपनी पत्नी के वियोग में तड़प रहा था. यही कारण है कि उसने सुग्रीव की सहायता की.”

“तुम क्या हमें भयभीत करने की चेष्टा कर रहे हो? उसने सुग्रीव की सहायता नहीं की अपितु उसे मोल लिया है. वह बाली से भी मित्रता कर सकता था किन्तु स्पष्ट है कि बाली जैसा बलशाली राजा किसी वनवासी से मित्रता न करता. और फिर सुग्रीव को नियंत्रित करना राम के लिए सरल था. अन्यथा यदि वह इतना ही बड़ा शक्तिशाली और श्रेष्ठ पुरुष है तो वह अपनी पत्नी की रक्षा क्यों नहीं कर सका?”

“मैंने तो कुछ और ही सुना है उसके बारे में, राजन. मैंने सुना है कि अंत समय में तो बाली भी अपनी भूल मान गया था. और उसने राम से क्षमा मांगी थी. राम ने उसे आश्वासन दिया था कि वे उसके पुत्र अंगद को युवराज बनाएँगे. अंगद से तो आप मिल भी चुके हैं.”

कालनेमि का संकेत था तब की बात पर जब राम ने अंगद को शांतिदूत बनाकर भेजा था. जब अंगद लंका के द्वार पर पहुंचा था तो अधिकतर राक्षस यही मानकर भयभीत हो गए थे कि लंका-दहन करने वाला वानर पुनः लौट आया है. फिर जब अंगद ने अपना परिचय दिया तब भागते चीखते राक्षस रुके और उसे दरबार की ओर लेकर गए. वहां रावण ने उसे अपने मित्र बाली का पुत्र कहकर उसका स्वागत किया. परन्तु इसके उत्तर में अंगद ने कहा कि बाली की मृत्यु हो गई है अतः रावण निश्चिन्त और सहज हो सकता है. उसे दिखावे की आवश्यकता नहीं है.

यूं भांति-भांति से रावण का तिरस्कार और अपने प्रभु राम की बड़ाई करते हुए उसने रावण को उसके कई शक्तिशाली शत्रु स्मरण कराए और कहा कि अब जब यह सिद्ध है कि वह वैसा नहीं, जैसा दिखाता है तो उसे अपने कृत्यों की श्री राम से क्षमा मांग लेनी चाहिए. श्री राम एक वचन, एक बाण और एक पत्नी वाले हैं. वे आदर्श-मूर्ति रावण को अवश्य क्षमा कर देंगे.

किन्तु रावण ने उसकी एक न सुनी अपितु प्रत्युत्तर में कहा कि राम ने अंगद के पिता बाली को एक अवसर क्यों नहीं दिया. उसका रावण को अवसर देना इस बात को सिद्ध करता है कि राम की दृष्टि में रावण कितना शक्तिशाली है अथवा राम रावण से कितना भय खाता है. जब तर्क और बल दोनों ही प्रकार से अंगद को न उचित प्रकार सुना गया और न समझा गया तो वह वहां से चला गया था.

मानों एक युग में से वापस लौटे राजा रावण ने धिक्कारते हुए कहा, “आश्वासन नहीं प्रलोभन कहो. वह राम केवल अपनी राजनीति के पीछे अपनी दुर्बलता छिपाना चाहता है. इतने राजनैतिक गठजोड़ भी उसे दशानन रावण से पार पाने में सहायता नहीं करेंगे. उसका कोई मित्र हमारे वीरों से स्पर्धा नहीं कर सकता.”

“फिर भी आप हनुमान को कम न समझें, लंकेश.” यह बात कहते हुए कालनेमि जानता था कि लंकेश, हनुमान को कभी कम नहीं मान सकते. इसी हनुमान ने लंका की सुन्दर अशोक वाटिका को नष्ट-भ्रष्ट किया था. इसी हनुमान ने उनके प्रिय-पुत्र अक्षय कुमार को खंड-खंड कर डाला था. इसी हनुमान ने स्वर्ण से बनी लंका को जला कर राख किया था. सम्भवतः इसी कारण लंकेश ने उसे मारने के लिए कालनेमि को चुना था.

दशानन के दस शीश और उनमें दस ही मस्तिष्क थे. इसी कारण रावण ने चतुर्वेदी होने, महापंडित और भांति-भांति की विद्याओं का ज्ञाता होने की ख्याति अर्जित की थी. रसायन, संगीत, कला, युद्ध, औषध, तंत्र व मन्त्र में भी लंकेश पारंगत थे. किन्तु दस मुख भी थे. कालनेमि की बात सुनकर बांया मुख बोला, “यदि राम के पास हनुमान है तो रावण के पास इन्द्रजीत है जिसे इंद्र को परास्त करने के उपरांत यह नाम मिला है.”

“किन्तु हनुमान को इन्द्रजीत भी न रोक सका था, लंकेश. और मैंने तो यह भी सुना है कि जब युवराज इन्द्रजीत ने मूर्छित लक्ष्मण को उठाने की चेष्टा की तो ऐसा कर न सके.” कालनेमि को आगे कहने की आवश्यकता नहीं थी. लंकेश कदाचित भली प्रकार जानते होंगे. जब इन्द्रजीत ने लक्ष्मण को उठाने का प्रयास किया तो हनुमान ने उसका उपहास करते हुए कहा था कि जो पूरी पृथ्वी का भार उठाते हैं उनका भार वह किस प्रकार उठाएगा. फिर हनुमान ने अपने उसी मुष्टि-प्रहार से, जिससे उसने लंकिनी को परास्त किया था, इन्द्रजीत को भी कोसों दूर पहुंचा दिया था.

अतः अब मानो अति हो गई. लंकेश का तीसरा शीश क्रोध में बोला, “अब और मेरे धैर्य की परीक्षा न लो. मैंने अपना प्रिय और आज्ञाकारी भाई कुम्भकर्ण खोया है. वह कुम्भकर्ण जो मुझे दिए वचन को पूर्ण करने के लिए युद्धभूमि में न रुका न पीछे मुड़ा. उसके अंग कट-कटकर गिरते गए किन्तु वह आगे बढ़ता ही गया. जिसके केवल मुख ने ही न जाने कितने वानरों को अपना ग्रास बना लिया. तब भी राम को दिव्यास्त्रों का सहारा लेना पड़ा उसे शांत करने के लिए.” कहते-कहते लंकेश के नेत्रों में अश्रु उभर आए.

वे आगे बोले, “अतः कालनेमि. तुम्हें हनुमान अथवा उस राम से भय लगता है तो यहीं बैठकर अपने जीवन की खैर मनाओ. किन्तु रावण को अपने वाला मार्ग न सिखाओ. हमें तुम यह मत बताओ कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं. यदि कुछ करना ही है तो हनुमान के काल का उद्योग करो, कालनेमि.”

दशानन रावण का एक और गुण था. वे किसी भी व्यक्ति को अपने उद्देश्य से इस प्रकार जोड़ लेते थे कि मानो वह उस व्यक्ति का ही उद्देश्य हो. अब कालनेमि मना न कर सका. वह बोला, “परन्तु, फिर भी मैं कैसे?” एक लम्बे अंतराल के बाद कालनेमि ने कहा.

लंकेश  ने कहा, “वह ऐसे कालनेमि कि तुम ही हम में से एकमात्र ऐसे हो जो कालकूट विष का साधक है. तुम छद्मवेश धारण करने में पारंगत हो.”

कालनेमि, लंकेश के मामा मारीच का पुत्र था. वह अपने भ्राता की बात का मर्म समझता था. वह उन्हें भली-प्रकार से जानता था. और यही कारण भी था जो कि महाराज रावण ने उसे महाबलशाली हनुमान को मारने का कार्य सौंपा था. अपने महाराज की योजना का सार जानकर कालनेमि मुस्करा दिया.

लंकेश आगे बोले, “ज्ञात होता है कि तुम हमारा अभिप्राय समझ गए हो. तो क्यों न योजना को कार्यान्वित किया जाए.” कहते हुए लंकेश कक्ष में लगी खिड़की से बाहर झाँकने लगे. उनकी लम्बी काया और शक्तिशाली शरीर था. वज्र के समान ग्रीवा पर सुशोभित उनके मुखमंडल पर बड़ी-बड़ी मूंछें तथा विशाल नेत्र, किसी को भी विचलित कर देने के लिए पर्याप्त थे. वे आगे बोले, “वह तुच्छ वानर हिमालय की ओर जा रहा है. तुम्हें करना यह है कि उसे मार्ग में भटकाना है और कुछ भी करके उसका वध करना है.”

कालनेमि समझता था कि राजा रावण, हनुमान से इतने कुपित क्यों हैं. वह तो केवल यह समझ नहीं पा रहा था कि यदि मेघनाद जैसा वीर और पराक्रमी जो इंद्र को भी जीत चुका था. यदि वह उसका कुछ अहित न कर सका तो कालनेमि क्या कर सकता है.

“क्या आपको अभी भी कोई शंका है?” सुन्दर और सुदृढ़ शरीर वाले युवराज इन्द्रजीत ने कालनेमि के आवास के द्वार से प्रवेश करते हुए कहा. “यदि है तो न रखिये. आपके पास कालकूट विष है. आपको केवल उस हनुमान पर इसका प्रयोग करना होगा. बस.”

“मुझे केवल यही शंका है युवराज, कि क्या कालकूट विष हनुमान पर प्रभाव दिखाएगा? तुम स्वयं भली-भांति परिचित हो कि किस प्रकार तुम्हारा ब्रह्मास्त्र भी उस पर विफल रहा था.”

इस पर मेघनाद सोच में पड़ गया किन्तु लंकेश ने मुस्कान के साथ कहा, “इसमें चिंता की कोई बात नहीं है, कालनेमि. हिमालय के मार्ग में एक निर्जन वन आता है जहाँ एक सरोवर है. वह सरोवर तथा वह वन शापित है. वहां कोई वरदानी शक्ति काम नहीं करती. तुम समझ रहे हो न?”

“सब समझ गया.”

“परन्तु एक बात हमारे समझ में नहीं आई,” युवराज ने बीच में पूछा. “आप उस वानर को वहां रोकोगे कैसे, अर्थात वह वहां क्यों रुकेगा?”

“इसका हल मुझे ज्ञात है. जहाँ कहीं भी पूरी श्रद्धा से राम के नाम का जाप किया जाता है, वहां हनुमान अवश्य आता है,” कालनेमि ने उत्तर दिया.

“तो क्या अब तुम शत्रु का गुणगान करोगे.” दशानन एकाएक क्रोध से फट पड़े.

“आप क्रोध न करें, दशानन. यह सब छद्मावरण की नीति है. आप बस प्रतीक्षा करें. अब या तो हनुमान जीवित रहेगा या फिर कालनेमि.”

“लंका से हिमालय जाने के लिए इस स्थान से अवश्य जाना पड़ेगा,” कालनेमि ने निश्चित स्थान पर पहुँचकर , आस-पास दृष्टि डालते हुए कहा. वहां एक गुफा और एक तालाब था. इस स्थान पर दिव्य शक्तियाँ अथवा वरदानी शक्तियाँ काम नहीं करती थीं. “सर्वप्रथम मैं प्रयत्न करूंगा कि हनुमान धान्य्वरी का ग्रास बने. यदि वह उससे किसी प्रकार बच निकला तो फिर मैं उसपर अपने कालकूट विष का प्रयोग करूँगा.”

धान्य्वरी, स्वर्ग की एक अप्सरा थी. उसे एक ऋषि ने शाप दिया था जिस कारण वह एक दैत्य में परिवर्तित हो गई थी. उसी के प्रभाव के कारण यह स्थान बुरी शक्तियों की अधिकता रखता था तथा दिव्य शक्तियाँ यहाँ तेजहीन थीं. वह दैत्य यहीं तालाब में ही वास करता था. कालनेमि को पूर्ण विशवास था कि वह हनुमान को अवश्य समाप्त कर देगा.

“हनुमान आता ही होगा. मुझे अपना कार्य आरंभ करना चाहिए.” कालनेमि ने कहकर अपना रूप बदल लिया. उसने एक ऋषि-सा वेश धारण किया. बड़ी-बड़ी दाढ़ी-मूंछें और केश तथा हाथ में कमंडल. इसके पश्चात वह एक शिला पर बैठ गया. दाढ़ी पर हाथ फेरता हुआ सोचने लगा, “हनुमान वहां अवश्य रुकेगा जहाँ राम का श्रद्धापूर्ण गुणगान होगा. इसलिए मुझे भी पूरी श्रद्धा से राम के नाम का जाप करना होगा. हनुमान को मुझ पर संदेह नहीं होना चाहिए. भले ही मेरे मन में राम के लिए कोई श्रद्धा-भाव न हो किन्तु कोई भी कार्य करने के लिए निष्ठा अवश्य होनी चाहिए.”

इतना सोचकर कालनेमि ने आसन लगाया और श्रीराम-नाम का जाप आरंभ किया. वह चाहता था कि उसकी ध्वनि इतनी ऊंची हो कि हनुमान बिना सुने रह न पाए. पर इस कार्य के लिए वह माया का उपयोग नहीं कर सकता था. अतः वह अपने कंठ की गहराइयों से गाने लगा.

“हे राम! मेरे राम!

रघुवीर जाने मुझको मिलें कब

रघुवीर जाने मुझको मिलें कब

दर्शन को तरसें अँखियाँ बेचारी…

रघुवीर जाने मुझको मिलें कब

कहते ही कहते रैना बिसारी…”

इस तरह उसने अपना सारा ध्यान राम के नाम पर लगा दिया. उसे ध्यान भी न था कि उसके परिवेश में क्या घट रहा है.

“सांवले से मुख पर इक मंद-सी मुस्कान है,

इक काँधे धनुष है और दूजे पर बाण हैं,

ममतामयी हैं प्रभु मृदल वाणी बोलते हैं

मर्यादा, शौर्य, शील इनकी पहचान है…”

कालनेमि पूरे मन से इस भजन में खोया था कि तभी उसे किसी की वाणी ने चौंकाया.

“प्रणाम, ऋषिवर!”

उसने आँखें खोल कर देखा तो पाया कि सामने हनुमान खड़ा है. एक विशालकाय वानर जिसकी काया को देखकर सामान्य व्यक्ति आतंकित हो जाए परन्तु वहीँ मुख का भोलापन मन मोह ले. शीश पर स्वर्ण मुकुट और कंधे पर दिव्य गदा रखे हनुमान आगे बढ़ा. उसने कालनेमि के निकट पहुँचकर उसे पुनः प्रणाम किया. कालनेमि ने प्रणाम स्वीकार करते हुए आशीर्वाद का हाथ उठाया. फिर कहा, “आयुष्मान! तुम अवश्य हनुमान होंगे. है न?”

हनुमान ऋषि के ज्ञान से प्रभावित दिख रहा था. वह मुस्कराया और बोला, “जी ऋषिवर, आपने सत्य कहा. मैं हनुमान ही हूँ.”

“तुम्हारा स्वागत है हनुमान. अब यह तो बताओ कि तुम यहाँ कैसे?”

“ऋषिवर, आप तो जानते ही होंगे कि लंका में भयंकर युद्ध छिड़ा है.” कालनेमि ने हताशा से हाँ में शीश हिला दिया. हनुमान ने आगे कहा, “इसी युद्ध में रावण के पुत्र इन्द्रजीत ने छल से भ्राता लक्ष्मण को शक्ति मार दी है. वैद्यराज सुषेण ने इसका उपचार संजीवनी बूटी से बताया है. अतः मैं वही लेने के लिए हिमालय जा रहा था.”

“तो फिर संकोच कैसा, अतिशीघ्र जाओ. और यदि हमारी किसी सहायता के लिए आए हो तो अवश्य हमसे कहो.”

“जी धन्यवाद. मुझे तो प्यास लगी थी. यहाँ से जा रहा था तो आपकी कुटिया देखी, निकट तालाब देखा और फिर आपके मधुर राम-भजन को सुनकर रहा न गया. सो, आ गया. आप बड़े राम-भक्त हैं. कृपया, प्रभु के इस तुच्छ सेवक को आज्ञा दें कि मैं जल से अपनी तृष्णा शांत कर लूं.”

“अवश्य, हनुमान. तुम्हें आज्ञा है. इसके अतिरिक्त हम तुम्हारी और भी सहायता करना चाहते हैं.”

“वह कैसे, महात्मन?” हनुमान जिज्ञासु लग रहा था.

“तुम तलाब में जल पीकर, स्नान करके आ जाओ. हम तुम्हें ऐसा दिव्य मन्त्र देंगे जिसकी सहायता से तुम पलभर में ही अपने इच्छित स्थान पर पहुँच जाओगे.”

“सच, महात्मन?”

“हाँ.”

“आपकी बड़ी कृपा होगी. मैं अभी स्नान करके आता हूँ.”

“कृपा कैसी, यह तो राम-काज में हमारा नगण्य योगदान है. अब जाओ और जल्दी आओ, विलम्ब न करो.”

“जो आज्ञा,” कहकर हनुमान ने तालाब की ओर प्रस्थान किया.

Published by Yatharth Singh Chauhan

Self-published Fantasy/Scifi and Historical fiction Author

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