Devayani: Aarambh Sample

अध्याय 1


जैसे-जैसे ऊँचाई बढ़ रही थी, शुक्राचार्य को और भी कठिनाई हो रही थी। वे उस स्तर पर पहुँच चुके थे जहाँ स्वेद भी जम जाए। अचानक एक नुकीला कंकर उनके पाँव में चुभा और उन्होंने एक टीस के साथ अपनी आँखें मूँद ली। आस-पास का वातावरण दृष्टि से ओझल होते ही उनके मानस पर अपने भूतकाल की कुछ स्मृतियाँ सजीव हो गईं। वे स्मृतियाँ जो शुक्राचार्य को किसी नुकीले कंकर की भांति ही चुभती थीं।

उन्होंने पाँव से कंकर निकाला और स्वयं को तथा अपने उत्साह को उठाया। कुछ देर चले फिर उन्होंने विराम लेने का निश्चय किया। वे एक चट्टान पर बैठ गए। उन्होंने अपने चारों ओर दृष्टि घुमाई। आज वे अपने परिवेश से बहुत दूर और अपने प्रतिद्वंद्वियों से बहुत ऊपर थे। महर्षि भृगु के महान कुल में जन्म लेने वाले शुक्राचार्य ने कभी इस दिन की कल्पना नहीं की थी। जिस कुल में महर्षि च्यवन और स्वयं देवी लक्ष्मी ने जन्म लिया हो तथा स्वयं नारायण जिस कुल के जमाता हों। उसी कुल के एक सदस्य को कीर्ति और सफलता अर्जित करने में भला क्या कठिनाई हो सकती है? और वह भी तब जब वह एक मेधावी छात्र रहा हो।

उपर्युक्त बात शास्त्रों में सही बैठती है किन्तु वास्तविक जगत में नहीं। वास्तव में ऐसा नहीं होता। योग्य होना और सफल होना दो भिन्न-भिन्न परिपाटी हैं। शुक्राचार्य भी इसी व्यवस्था के आखेट बने थे। वे भृगु और देवी ऊषा के एकमात्र पुत्र थे। भृगु-संहिता के रचयिता होने के कारण महर्षि भृगु कवि भी कहलाते थे और शुक्राचार्य कविपुत्र। किन्तु वे अधिक समय तक अपने पिता का आश्रय नहीं पा सके। महर्षि भृगु अधिकतर अपनी तप-साधना में लीन रहते। उनकी अन्य पत्नियाँ भी उनके साथ ही साधना करती। और शुक्राचार्य की माता अपने पुत्र के लालनपालन में व्यस्त रहती। उन्हें अपने पुत्र से बहुत आशाएँ थीं। वह भृगुकुल में जो जन्मा था। शुक्राचार्य ने भी अपनी माता से संकल्प किया कि वे उन्हें योग्य बनकर दिखाएँगे। वे भृगुकुल की महानता को आगे बढाएँगे।

उनके पिता महर्षि भृगु ने उनकी रूचि और इच्छा को समझा और उनकी प्रारम्भिक शिक्षा का दायित्व अपने कंधों पर लिया। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा के उपरांत शुक्राचार्य ने इच्छा प्रकट की कि वे उच्च शिक्षा के लिए महर्षि अंगिरा के पास जाना चाहते हैं। कुछ न चाहते हुए-से महर्षि भृगु ने आज्ञा दे दी। उस असहजता का मर्म शुक्राचार्य को बहुत बाद में ज्ञात हुआ।

आरंभ में सब कुछ सही था। महर्षि अंगिरा के आश्रम में बालक ऊश्ना का स्वागत हुआ था। महर्षि अंगिरा के पुत्र बृहस्पति से ऊश्ना की मित्रता भी हो गई। किन्तु शीघ्र ही उसके बढ़ते हुए ज्ञान और असीमित प्रतिभा ने कदाचित गुरु को ही विचलित कर दिया। कदाचित उन्हें अपने पुत्र के भविष्य को लेकर चिंता होने लगी। और कदाचित यही कारण था कि वे अपने दोनों शिष्यों में भेदभाव करने लगे।

एक दिन बालक ऊश्ना ने कक्षा में प्रश्न किया, “गुरुदेव! क्या मनुष्य का मृत्यु पर विजय प्राप्त करना संभव है?”

उसका प्रश्न सुनकर एक बार तो महर्षि अंगिरा चौंक गए किन्तु फिर दूसरे ही पल डाँटते हुए कहने लगे, “ऊश्ना! तुम किन विचारों में खोए रहते हो? यह सब व्यर्थ की बातें हैं। इन्हें छोड़ो और अपनी शिक्षा पर ध्यान दो। ऊश्ना को बुरा तो अवश्य लगा किन्तु अपने गुरु में उसकी अटूट श्रद्धा थी। कक्षा समाप्त हो गई। उसने गुरु को प्रणाम किया और पशुओं की सेवा के लिए चला गया। वह वन में पशु चरा रहा था किन्तु उसके मन में वे ही प्रश्न उमड़ रहे थे। मृत्यु के बाद जन्म है किन्तु यदि मृत्यु को रोक दिया जाए तो? क्या एक मनुष्य मृत्यु पर विजय पा सकता है? और क्या मृत्यु के पश्चात किसी के प्राण लौटाए जा सकते हैं?

ऊश्ना अधिक धैर्य नहीं रख सकता था। वह पशुओं को लेकर शीघ्र ही आश्रम लौट आया। आश्रम अत्यधिक विशाल था। ऊश्ना ने पशुओं को उनके नियत स्थान पर बाँधा और फिर अपने गुरुदेव के पास गया। गुरुदेव डाँटें अथवा दंड दें किन्तु ऊश्ना को अपने प्रश्नों के उत्तर चाहिए थे। वह तेजी से चल रहा था पर फिर उसने सोचा कि हो सकता है गुरुदेव ध्यान में बैठे हों। इस कारण वह पहले दबे पाँव गुरुदेव की कुटिया के निकट पहुँचा। वह देखने लगा कि गुरुदेव ध्यान में तो नहीं। किन्तु जो उसने देखा उसने उसे सोचने पर विवश कर दिया।

भीतर गुरुदेव अपने पुत्र बृहस्पति को अमृत और अमरता के विषय में बता रहे थे। यदि गुरुदेव को ज्ञान था तो उन्होंने मुझे क्यों मना किया? यही पहला प्रश्न था जो बालक ऊश्ना के मन में कौंधा। यदि अमृत जैसा कोई पदार्थ इस संसार में है, जो व्यक्ति को अमर बना सकता है, तो उसके विषय में ऊश्ना को न बताने का कौनसा कारण हो सकता था? एक गुरु के प्रति उसके शिष्य की श्रद्धा ही सब-कुछ होती है। और उस दिन के पश्चात ऊश्ना की अपने गुरु के लिए जो श्रद्धा थी वही टूट गई। वास्तव में केवल वह एक अवसर ही नहीं था इस बात को पुष्ट करने के लिए कि महर्षि अंगिरा अपने शिष्यों में भेदभाव कर रहे हैं।

आश्रम के पशुओं को वन में चराने ले जाने का दायित्व एक दिन ऊश्ना का होता था और एक दिन बृहस्पति का। और जिस दिन ऊश्ना वन में पशुओं के साथ होता था तब अंगिरा अपने पुत्र को वह ज्ञान देते थे जो वे कक्षा में नहीं देते थे। यह बात सिद्ध हो चुकी थी कि ऊश्ना वहाँ रहकर वह कभी नहीं बन सकता जो वह बनना चाहता है। अतः उसने एक साहसी निर्णय लिया। उसने गुरुदेव से जाने की आज्ञा ली और उनका आश्रम छोड़ दिया।

इसके पश्चात बालक ऊश्ना ने गौतम मुनि को अपना गुरु बनाया और उन्हें अपने साथ हुए सारे भेदभाव के विषय में बताया। गौतम मुनि ने उसकी बात को गंभीरता से सुना और बोले, “तुम्हारे साथ जो हुआ वह निंदनीय है, वत्स। किन्तु आज के पश्चात यह सब किसी से न कहना। शिष्य का धर्म है कि अपने गुरु को किसी भी परिस्थिति में लज्जित न करे।”

“जो आज्ञा, गुरुदेव!”

“और हाँ, वत्स। तुम महर्षि को उनकी गुरु-दक्षिणा तो दे आए हो न?”

“मैंने बहुत आग्रह किया किन्तु गुरुदेव ने कहा कि वे समय आने पर ले लेंगे।”

सुनकर गौतम मुनि के ललाट पर बल पड़ गए। “यह तुमने अच्छा नहीं किया, वत्स।” गौतम मुनि की इस बात का मर्म बालक ऊश्ना को समझ नहीं आया।

ऊश्ना ने गौतम मुनि के आश्रम में अपनी शिक्षा को आगे बढ़ाया। उन्होंने ऊश्ना से कुछ नहीं छिपाया था। उसे वह संपूर्ण ज्ञान दिया जितना कि उनके पास था। बालक ऊश्ना, एक प्रतिभावान और विद्वान के रूप में बड़ा हुआ। वह योग में, ज्योतिष में तथा औषध में भी निपुण व पारंगत था। महामुनि गौतम ने उसकी शिक्षा में कोई ढील नहीं आने दी थी।

“अब तुम एक विद्वान पुरुष हो, वत्स। तुम्हारे समक्ष एक उज्जवल भविष्य है।” गौतम मुनि ने ऊश्ना को आशीर्वाद देते हुए कहा।

ऊश्ना ने कहा, “सब आपकी कृपा है, गुरुदेव।” फिर कुछ भावुक होकर बोला, “गुरुदेव! यहाँ से जाने का मन तो नहीं करता किन्तु मुझे मेरा लक्ष्य पुकार रहा है। अतः मुझे आज्ञा दें।”

गौतम मुनि मुस्कराए, “तुमने कभी खुलकर बताया नहीं, ऊश्ना, कि तुम्हारा लक्ष्य क्या है।”

सुनकर ऊश्ना गंभीर हो गया और कहा, “गुरुदेव! मैं अपनी माता को गौरान्वित करना चाहता हूँ। मैं अपने कुल की कीर्ति को और आगे ले जाना चाहता हूँ। मैं वह करना चाहता हूँ जो आजतक कोई नहीं कर सका।”

“और वह भला क्या है?” गुरुदेव ने अपने शिष्य की बात में रूचि लेते हुए पूछा।

ऊश्ना ने एक गहरी श्वास ली और कहा, “मैं मृत्यु को जीतना चाहता हूँ, गुरुदेव।”

“मृत्यु को?” गौतम मुनि का मुख गंभीर हो गया। वे ऊश्ना की जिज्ञासाओं को समझते थे। उन्होंने उसे अमृत और अमरता के विषय में बताया था। किन्तु साथ में यह भी बताया था कि इस मृत्युलोक में जिस किसी ने भी जन्म लिया है, उसका मरण भी निश्चित है। इस सब पर भी उन्हें अपने इस शिष्य पर विश्वास था। उन्हें विश्वास था कि वह अपने दृढ़ निश्चय से अपना लक्ष्य अवश्य प्राप्त करेगा। अतः वे मुस्कराए और हाँ में शीष हिलाया।

ऊश्ना भी प्रसन्न हुआ और कहा, “गुरुदेव! मुझे गुरु-दक्षिणा देने का अवसर दें जिससे कि मैं विदा ले सकूँ।”

“गुरु-दक्षिणा में तुमसे मुझे बस एक वचन चाहिए, वत्स।”

“आज्ञा करें, गुरुदेव।”

“मुझे वचन दो कि तुम न कभी अन्याय करोगे न ही होने दोगे। अन्याय देखकर भी चुप रहना और कुछ नहीं करना केवल अन्याय को बढ़ावा देता है।”

“मैं आपको वचन देता हूँ, गुरुदेव। मैं न तो कभी अन्याय करूँगा और न ही कभी अन्याय होने दूँगा।” कहकर ऊश्ना ने गौतम मुनि के चरण स्पर्श किए और आज्ञा ली।

इसके पश्चात ऊश्ना ने ब्रह्मदेव की तपस्या की और उनसे ब्रह्मज्ञान और कई वरदान पाए। उसने महादेव की आराधना की और उनसे योग का ज्ञान और एक नया नाम पाया –शुक्र।

एक बार भगवान शिव किसी कारण से ऊश्ना से रुष्ट हो गए। कारण था कि ऊश्ना ने अपनी शक्ति के मद में यक्षराज कुबेर को बंदी बना लिया था। महादेव ने उसे कैलाश से जाने को कहा। किन्तु जब ऊश्ना ने हठ किया कि वह तब तक वहाँ से नहीं हिलेगा जब तक महादेव उसे क्षमा नहीं कर देते तो भगवान शिव और भी क्रोधित हो गए और एक विशालकाय रूप ले लिया। इसपर ऊश्ना ने भयभीत होने के स्थान पर अपने योगबल का आश्रय लिया और जाकर महादेव के त्रिशूल की नोक पर खड़ा हो गया। भगवान का क्रोध अपनी सीमा लांघ गया और उन्होंने ऊश्ना को जीवित निगल लिया।

इसपर भी ऊश्ना ने साहस नहीं छोड़ा। उसने महादेव के शरीर में रहते हुए उनकी स्तुति गानी आरंभ कर दी। समय और अवस्था का कोई ध्यान न करते हुए ऊश्ना ने महादेव की स्तुति गाई। अंततः भोलेनाथ प्रसन्न हो गए और एक अंतिम परीक्षा के रूप में ऊश्ना से पूछा, “वत्स! मैं तुमसे और अधिक रुष्ट नहीं हूँ। इसके विपरीत मैं तुम्हारे धैर्य से प्रभावित हूँ। मैं तुम्हें अनुमति देता हूँ कि तुम अपने योगबल द्वारा मेरे शरीर से बाहर निकल आओ। उस समय ऊश्ना नीचे की ओर था। उसने ध्यान लगाया और महादेव के लिंग-मार्ग से बाहर आ गया।

महादेव उसका योगबल देखकर और भी प्रसन्न हुए। वे बोले, “ऊश्ना! वत्स तुम अपने योगबल की सहायता से मेरे लिंग-द्वार से निकले हो। यह स्थान शुक्राणुओं का होता है। अतः आज से मैं तुम्हें एक नया नाम देता हूँ –शुक्र। आज से तुम संपूर्ण जगत में इसी नाम से जाने जाओगे।

कुछ समय बीता और युवा शुक्र को ज्ञात हुआ कि देवताओं ने अपने पुरोहित के चुनाव के अंतर्गत एक प्रतियोगिता रखी है जिसमे विभिन्न युवा विद्वानों के मध्य शास्त्रार्थ होगा और विजेता को देवताओं का पुरोहित बनाया जाएगा। शुक्र ने भी भाग लिया। किन्तु कोई भी वहाँ शुक्र के बराबर का नहीं था। शास्त्रार्थ दो समूहों में हुआ। एक समूह का विजेता था शुक्र और दूसरे का विजेता था उसका बाल्यकाल का मित्र –बृहस्पति। अगले दिन उन दोनों के मध्य अंतिम प्रतियोगिता थी।

प्रतियोगिता की पूर्व संध्या को शुक्र अति आत्मविश्वास से भरा हुआ था। उसे पूर्ण विश्वास था कि विजय उसी की होगी। वह भोजन के लिए बैठने ही वाला था कि उसे एक ब्राहमण-पुत्र ने आकर प्रणाम कहा। बोला, “भार्गव मुनि शुक्र को मेरा प्रणाम! मेरा नाम पुष्प है और मुझे ब्रह्मर्षि अंगिरा ने भेजा है।”

अपने गुरु का नाम सुनकर शुक्र को उत्साह भी हुआ और रोष भी। वह एकाएक ठिठक गया। किन्तु फिर उसे गौतम मुनि की शिक्षाओं का स्मरण हो आया। वे कहा करते थे कि शिष्य के मन में गुरु के प्रति कभी रोष, द्वेष अथवा घृणा नहीं आने चाहिए। गुरु में अविश्वास उसके द्वारा प्रदत्त ज्ञान में भी अविश्वास उत्पन्न करता है। इसलिए शिष्य को चाहिए कि भले गुरु जैसा भी हो परन्तु यदि उससे थोड़ा भी ज्ञान मिला है तो उसकी ओर से मन मलिन न करे।

यही सोचकर शुक्र आगे बढ़ा और पूछा, “गुरुदेव का संदेश लाए हो? क्या आज्ञा दी है उन्होंने?”

“आपको भेंट करने को कहा है।”

“भेंट करने को?”

“जी। अभी चलना होगा।”

शुक्र ने कुछ सोचा और कहा, “उचित है, चलो।” कहकर वह उस छात्र के संग हो लिया।

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