Devayani Sample

अध्याय 1


चारों और युद्ध की वीभत्सता छाई हुई थी. गदाओं के टकराने का शब्द, खड़ग की सरसराहट और धनुष की प्रत्यंचा की टंकार मुख से निकले हुए शब्द तक सुनने नहीं देती थी. रह-रहकर वातावरण में एक चमक उभरती थी और जिसका अंत एक विस्फोट के साथ होता था. सुनने वाले जानते थे कि यह देवासुर-संग्राम की ध्वनि है. देवासुर-संग्राम को चलते कितनी अवधि हो गई थी, यह तो कदाचित उसे लड़ने वाले भी भूल गए हों. किन्तु एक बात कोई नहीं भूलता था और वह था अपना लक्ष्य –अपने शत्रु को समाप्त करना. युद्ध के इस कोलाहल और विषाद को पीछे छोड़कर देवराज इंद्र ने अमरावती में प्रवेश किया.

देवराज इंद्र ललाट पर चिंता, मुख पर क्लान्ति और शरीर पर घाव लिए अपने महल में आए. इंद्राणी शची ने जब देखा तो उन्होंने शीघ्रातिशीघ्र सेवकों को बुलाया और देवराज को आसन पर बैठाकर उनके कवचादी को उतरवाया. दासियाँ सरोवर से जल ले आई और उन्होंने उसमें कुछ औषधियों के साथ पारिजात वृक्ष की पत्तियों का थोड़ा रस भी निचोड़ दिया. स्वर्ग की ये निधियां, जो व्यक्ति की क्लान्ति और घावों को क्षण में दूर कर देती थीं, आज संकट में थी. यदि देवता पराजित हुए तो ये सब निधियां असुरों के पास चली जाएंगी. यही विचार देवराज को चिंतित कर रहे थे.

इंद्राणी शची अपने मोहक नेत्रों से अपने पति के भावों को पढ़ रही थीं. देवी शची अत्यंत रूपवती स्त्री थी. स्वर्ग में वे उर्वशी और तिलोत्तमा को स्पर्धा देती थी. उनका सबसे मोहक और कामुक अंग उनके नेत्र थे. नेत्रों के विषय में तो कोई अप्सरा भी उनके समकक्ष नहीं थी. परन्तु यह केवल कुछ ही लोग जानते थे कि वे रूपवती होने के साथ-साथ कितनी बुद्धिमती भी थी. और इन कुछ लोगों में देवराज भी एक थे. देवराज ने जब अपनी चिंता में इंद्राणी को चिंतित देखा तो वे एक बनावटी हँसी हँस दिए. परन्तु देवी शची को उस नकली हँसी के पार देखने में कठिनाई नहीं हुई.

इंद्राणी ने सेवकों को जाने की आज्ञा दी और फिर देवराज को अपने कक्ष में लेकर गई. देवराज कक्ष में जाकर शय्या पर लेट गए. किन्तु उनके नेत्र तब भी एकांत ही खोजते रहे. जब व्यक्ति के मन में कोई कोलाहल हो, तब वह चाहता है कि आस-पास का वातावरण शांत हो जाए. इंद्राणी देवराज की इस मनोदशा से परिचित थी. उन्होंने कक्ष के द्वार बंद कर दिए और देवराज के सिरहाने आई. उन्होंने अपने कोमल हाथों को देवराज के माथे पर रखा और उसे सहलाना आरंभ किया. बीच-बीच में वे अपनी अँगुलियों से उसे दबाती. कभी अँगुलियों को माथे पर थिरकाती और कभी एक अदृश्य रेखा खींचती.

इंद्राणी के ऐसा करने से देवराज को बड़ी शांति मिली. कुछ देर उनका मस्तक दबाने के पश्चात, इंद्राणी आई और आकर शय्या पर देवराज के समक्ष बैठ गई. फिर उन्होंने देवराज का हाथ अपने हाथ में लिया और कहा, “देवेंद्र! अब कैसा अनुभव कर रहे हैं?”

देवराज मुस्कराए और कहा, “बहुत अच्छा, इंद्राणी. आपने तो हमारी सारी क्लान्ति ही मिटा दी.”

“यह तो कदाचित स्वर्ग के रसायनों का प्रभाव है, देव.” कहकर इंद्राणी हँसी.

इतने वर्षों पश्चात, आज भी जब देवराज देवी शची की हँसी सुनते थे तो लगता था मानो रंगशाला में किसी नृत्यांगना के घुँघरू खनक रहे हों. वे बोले, “आपके हाथों में जो चमत्कार है वह तो स्वर्ग की सभी निधियों में भी नहीं, देवी.” फिर उन्होंने इंद्राणी को हाथ पकड़कर झटके से अपनी ओर खींच लिया. वह देवराज के वक्ष पर आ गिरी.

देवी शची हँसते हुए बोली, “क्या कर रहे हैं, देवेंद्र?”

“अपनी क्लान्ति मिटा रहे हैं, इंद्राणी.”

“किन्तु…”

“किन्तु क्या, देवी? हम देवराज हैं. हमारे विश्राम में कोई व्यवधान उत्पन्न करे इतना किसी का साहस नहीं. और फिर आप द्वार को ढककर आई हैं.”

“किन्तु यदि जयंत अथवा देवसेना में से कोई आ गया तो?” इंद्राणी ने एक नटखट मुस्कान के साथ कहा.

देवराज ने उन्हें अपने बगल में लिटाया और बोले, “जयंत और देवसेना अब बड़े हो गए हैं. देवसेना तो अब विवाहित है, समझती है.”

देवसेना का विवाह महादेव-पुत्र कुमार कार्तिकेय से हुआ था. ताड़कासुर का वध करने के उपलक्ष्य में देवराज इंद्र ने उन्हें देवों के सेनापति बनने का प्रस्ताव दिया था. कार्तिकेय ने सोचने के लिए समय माँगा किन्तु बाद में यह प्रस्ताव स्वीकार लिया था. इस नए सम्बन्ध को और भी दृढ़ करने के लिए देवराज इंद्र ने अपनी पुत्री देवसेना का विवाह कार्तिकेय से कर दिया. देवासुर-संग्राम में व्यस्त रहने के कारण कार्तिकेय ने कुछ समय के लिए देवसेना को स्वर्ग भेज दिया था ताकि वह अपने माता-पिता के साथ कुछ दिन रह सके.

यूँ विचारों में खोई इंद्राणी कुछ समय तक देवराज के वक्ष पर सर रखे लेटी रही. फिर यूँ ही लेटे-लेटे बोली, “देवेंद्र! युद्ध के क्या समाचार हैं?” देवेंद्र जो अब तक शांत लेटे थे, देवी शची की बात सुनकर यूँ अचानक उठ बैठे. देवी शची ने कहा, “क्या हुआ, देव?”

कुछ देर यूं ही शून्य में ताकने के उपरांत, देवराज ने एक निश्वास छोड़ी और कहा, “क्या कहें, इंद्राणी. यह युद्ध तो दिनोंदिन हमारे गले की फांस बनता जा रहा है.” कहकर उन्होंने देवी शची की ओर देखा.

“क्यों क्या हुआ, देव?” इंद्राणी चिंतित हो गई.

“आज जो हुआ उसके पश्चात…”

“आज क्या हुआ? कुमार कार्तिकेय तो सकुशल हैं?” इंद्राणी बीच में ही बोल पड़ी.

“उन्हें क्या हो सकता है, देवी. वे महादेव के पुत्र हैं. उन्हीं के शौर्य के बल पर तो देवता युद्धभूमि में टिके हुए हैं. यदि वे न होते तो न जाने क्या होता. बात वह नहीं है.”

“तो क्या बात है, देवेंद्र?” इंद्राणी ने देवराज के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा.

“हुआ यह कि आज प्रातः से हम देवताओं का पलड़ा भारी था. हमारे प्रत्येक योद्धा में उत्साह था तथा कुमार को अद्भुत युद्ध करते देख असुर हतोत्साहित हो रहे थे. परन्तु जैसे ही हम आज के दिन विजयी होने वाले थे, दैत्यगुरु का युद्धभूमि पर आगमन हुआ. और फिर हर बार की भांति उन्होंने मृत असुर योद्धाओं को पुनर्जीवित कर दिया और वे फिर उठकर लड़ने लगे. हमारे देव योद्धा भले ही कितने उत्साह में थे परन्तु दिव्यास्त्रों के निरंतर प्रयोग के कारण वे अब क्लांत होने लगे थे.”

“फिर क्या हुआ?”

“फिर क्या होना था. हमारे क्लांत योद्धा वीरगति को प्राप्त होने लगे. मुख्य योद्धाओं का परामर्श था कि युद्ध-विराम की घोषणा की जाए किन्तु सूर्यास्त से पूर्व युद्ध-विराम की घोषणा करने का अर्थ होता –पराजय स्वीकार करना. कुमार कार्तिकेय की यही बात उचित जानकर हमने युद्ध को चलने दिया और अपने योद्धाओं की क्षति को वहन किया. यह हमारा सौभाग्य ही था कि सूर्यास्त हो गया और दैत्यगुरु ने युद्ध-विराम की घोषणा कर दी. अन्यथा हम यह देवासुर-संग्राम आज ही हार जाते.”

कुछ देर दोनों मौन रहे फिर देवी शची ने कहा, “किन्तु कल तो पुनः आपको युद्धभूमि पर जाना होगा, देवेंद्र. यदि कल पुनः ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गई तो?”

“कल पुनः तो नहीं किन्तु निकट भविष्य में हो सकती है. दैत्यगुरु प्रतिदिन रणभूमि पर नहीं आते. हमने पाया है कि वे बिना आवश्यकता मृत-संजीवनी का प्रयोग करने से बचते हैं. इसलिए वे कुछ दिनों के पश्चात युद्धभूमि पर आते हैं और मृत-संजीवनी के प्रयोग से सभी मृत असुरों को जीवित कर देते हैं. इतने दिनों में जो हम अपने शौर्य और श्रम से अर्जित करते हैं, वे उसे एक ही बार में निरस्त कर देते हैं.” कहकर उन्होंने शय्या पर एक मुष्टि प्रहार किया.

कुछ देर देवराज यूँही बैठे कुछ सोचते रहे और फिर बोले, “जितना हमने नहीं सोचा था, यह मृत-संजीवनी मंत्र उससे कहीं अधिक हमारे लिए समस्या बन गया है. हम अमर हैं फिर भी इस मंत्र के कारण जी उठने वाले असुरों से पराजित होने वाले हैं.” उसके पश्चात देवराज लेट गए. किन्तु उन्हें निद्रा नहीं आई. अतः वे उठे और बाहर की ओर निकल गए.

इंद्राणी शची भी सोच में पड़ गई थी. युद्ध में कोई विजयी होता है और कोई पराजित किन्तु फिर भी कोई ऐसा नहीं है जो पराजित होना चाहे. यदि देवासुर-संग्राम में देवता पराजित हो गए तो स्वर्ग पर असुरों का आधिपत्य हो जाएगा और देवताओं को कहीं मुख छिपाने का भी स्थान नहीं मिलेगा. स्वर्ग की सभी निधियां जो इंद्राणी ने स्वयं संजोई हैं, नष्ट-भ्रष्ट हो जाएंगी. पारिजात आदि वृक्षों का कोई रक्षक नहीं होगा. अप्सराओं का मान-सम्मान सब असुरों के हाथ होगा. और न जाने देवों से रुष्ट वे लोग उनके साथ कैसा व्यवहार करेंगे.

देवी शची को दैत्यगुरु पर विश्वास था किन्तु विजय का मद तो देवताओं से भी न सहा गया तो असुर तो फिर भी असुर ठहरे. और फिर दैत्यगुरु तो सदैव असुरों के साथ रहेंगे नहीं. अब तो देवराज ही जो निर्णय करें, उसी में कदाचित स्वर्ग की भलाई है, देवी शची ने सोचा.

देवराज अपने कक्ष से निकलकर सीधा सभाकक्ष में गए. उन्होंने सभी मंत्रियों को वहां उपस्थित होने को कहा. केवल कुमार कार्तिकेय को छूट दी गई कि वे जब लौटें तो सीधे देवसेना के भवन में चले जाएँ. देवसेना उनकी चिंता कर रही थी. अन्य सभी को सभाकक्ष में बुलाकर, देवराज ने उनसे प्रस्तुत समस्या का समाधान माँगा. इसपर पवन देव ने कहा, “देवेंद्र! इस समस्या के दो ही समाधान हो सकते हैं.”

“हम सुन रहे हैं, पवन देव.” देवराज ने अपनी श्रद्धा दर्शाते हुए कहा.

पवन देव ने आगे कहा, “या तो हम कुछ ऐसा करें कि जिससे दैत्यगुरु मृत-संजीवनी का प्रयोग न कर पाएं अर्थात मृत असुरों को जीवित न कर पाएं और या फिर हम कुछ ऐसा करें कि हम देव भी अपने मृत योद्धाओं को पुनः जीवित कर पाएं.”

पवन देव के सुझाव ने सबको सोचने पर विवश कर दिया. तभी वरुण देव बोले, “तो क्यों न दैत्यगुरु को बंदी बना लिया जाए.”

इस बात को सुनकर सभा में चारों ओर सन्निपात पसर गया. देवराज ने कहा, “आप कदाचित भूल रहे हैं, वरुण देव, कि आप किसके विषय में बात कर रहे हैं. वे दैत्यगुरु शुक्राचार्य हैं. उन्हें आपका वरुण-पाश भी नहीं बाँध सकता.” देवराज को नहीं ज्ञात कि उनके मन में दैत्यगुरु के लिए इतनी श्रद्धा कैसे आई. सम्भवतः वर्षों के टकराव और शुक्राचार्य की बढ़ती कीर्ति के साक्षी बने रहने के कारण ये भाव निकले थे.

इस विवाद को समाप्त करने के लिए अग्निदेव उठे और कहा, “तो फिर हमें उस व्यक्ति से सहायता मांगनी चाहिए जो दैत्यगुरु को भली-प्रकार जानता हो. और देवगुरु अपने निवास पर ही होंगे, देव.” कहकर अग्निदेव मुस्कराए.

देवराज इंद्र ने मुस्कराकर सुझाव का स्वागत किया और फिर उनकी अगवाई में सभी देवता, देवगुरु बृहस्पति के पास उनके निवास पर पहुंचे –उन्हें समस्या से अवगत कराने. देवराज को लगा था कि देवगुरु विश्राम कर रहे होंगे. इसलिए उन्होंने देवगुरु के सेवक को अपना प्रयोजन बताया. इससे पूर्व सेवक कुछ कहे, भीतर से देवगुरु का स्वर आया, “भीतर आ जाइए, देवराज.” सभी देवगण भीतर गए. किन्तु देवगुरु उन्हें देखकर चौंके नहीं. देवगुरु अपने जीवन के एक लंबे काल को देख चुके थे और न जाने उन्होंने इसमें क्या-कुछ देखा और सीखा था.

देवगुरु बृहस्पति और दैत्यगुरु शुक्राचार्य दोनों बाल्यकाल में मित्र थे. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा देवगुरु के पिता महर्षि अंगिरा से ही प्राप्त की थी. इस नाते वे दोनों गुरु-भाई भी थे. किन्तु बाद में किसी मतभेद के कारण दोनों में अंतर बढ़ता गया. बड़े होकर भी दोनों का मतभेद चलता रहा जब देवों ने बृहस्पति को अपना राजपुरोहित बनाया तो शुक्राचार्य दैत्यों के राजपुरोहित बन गए. किन्तु इन दोनों ने ही अपने मतभेद को कभी सार्वजनिक रूप से हँसी की बात नहीं बनने दिया. देवता और दानव दोनों ही यह बात जानते थे और इसका सम्मान करते थे.

देवराज किन्तु इनकी आतंरिक स्पर्धा को भी जानते थे. इसके अतिरिक्त वे यह भी जानते थे कि बृहस्पति अपने देवगुरु होने का दायित्व भलीभांति निभाएँगे. दोनों राजपुरोहित उच्चकुल ब्राहमण थे. बृहस्पति का कुल महर्षि अंगिरा का था तो शुक्राचार्य भार्गव थे. इसलिए भी देवराज इंद्र बिना देवगुरु की सहमती के कुछ भी नहीं कर सकते थे.

देवगुरु बृहस्पति अपने आसन पर बैठे कुछ लिख रहे थे. उन्होंने उसे एक ओर रखा और अपनी लम्बी श्वेत दाढ़ी पर हाथ फेरा. उनकी दाढ़ी और केश आयु से पूर्व ही श्वेत हो चले थे. किन्तु फिर भी स्वर्ग के निवासी होने के कारण उनकी अधेड़ आयु उनके मुखपर दिखाई नहीं देती थी. यदि दिखी तो केवल एक मुस्कान. देवराज ने अपनी सारी समस्या और सबके सुझाव देवगुरु को बताए.

देवगुरु बृहस्पति मुस्कराए और कहा, “इसका एक ही समाधान है.”

“क्या, देवगुरु?” इंद्र ने आतुर होते हुए पूछा.

बृहस्पति भी इंद्र की जिज्ञासा शांत करते हुए बोले, “सत्ता छीनी जा सकती है, देवराज. ज्ञान नहीं. ज्ञान केवल अर्जित किया जा सकता है.”

“अर्थात?” देवराज अभी भी देवगुरु की रहस्यमयी बातों को समझने में असमर्थ थे.

देवगुरु आगे बोले, “ अर्थात यह, देवराज, कि जिस प्रकार दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने इस विद्या को सीखा है, ठीक उसी प्रकार ही किसी को उनसे यह विद्या सीखनी होगी. वह व्यक्ति इस विद्या को शुक्राचार्य से सीखकर देवलोक में ले आए. फिर देवता भी उसी प्रकार युद्ध में इस का प्रयोग कर सकेंगे जैसे असुर कर रहे हैं.”

देवराज को बात तो समझ आ गई किन्तु वे यह निर्धारित नहीं कर पा रहे थे कि किसे भेजा जाए. उन्होंने कहा, “आपके विचार में यह कार्य कौन कर सकता है, देवगुरु?”

आप देवराज हैं, देवेंद्र. यह आपको निश्चित करना होगा.” देवगुरु ने मुस्कराकर कहा.

कुछ देर सोचने के उपरांत इंद्र के मुख पर एक मुस्कान खिल गई. उन्होंने कहा, “मेरे ध्यान में एक सुपात्र है, देवगुरु. यदि आपकी अनुमति हो तो.” कहकर देवराज पुनः मुस्कराए.

देवगुरु बृहस्पति भी उनका तात्पर्य समझ गए थे. उन्होंने कहा, “यदि आपका आशय कच से है तो हमारी अनुमति है. किन्तु आपको स्वयं उसकी भी अनुमति लेनी होगी.”

“जो आज्ञा!” कहकर देवेंद्र ने देवगुरु से विदा ली. फिर सभी देवों को लेकर वे कच से मिलने चल पड़े.

कच, महर्षि अंगिरा के पौत्र तथा देवगुरु बृहस्पति के पुत्र थे. ज्ञान और चातुर्य उनमें भरपूर था. उनकी प्रारंभिक शिक्षा देवगुरु बृहस्पति के द्वारा ही पूर्ण हुई थी. अब वे अपनी उच्च शिक्षा के लिए प्रयासरत थे. केवल ज्ञानवान ही नहीं वे रूप में कामदेव को भी मात करने वाले तथा अपनी बातों से अप्सराओं का भी ह्रदय चुरा लेने में सक्षम थे. उनकी मनमोहक मुस्कान और शारीरिक सुडौलता किसी भी स्त्री के मन में अपना स्थान बना सकने में पर्याप्त थी. जब देवगण वहां पहुंचे तो कच गंधर्वराज चित्ररथ से वीणा-वादन की शिक्षा ले रहे थे. अचानक अतिथियों के आवास पर आ जाने से उन्होंने वीणा-वादन रोक दिया और उठकर देवराज को प्रणाम किया.

कुशल-क्षेम पूछने के पश्चात, देवराज ने उन्हें परिस्थिति की गंभीरता से अवगत कराया. पूर्ण स्थिति समझकर कच ने कहा, “मैं आपकी बात समझ रहा हूँ, देवराज. मैं आपका कार्य करने को तत्पर भी हूँ किन्तु मुझे केवल यह समझ नहीं आ रहा कि मैं ही क्यों? यह कार्य तो कोई भी सिद्ध कर सकता है.”

“नहीं, गुरुपुत्र.” देवराज इंद्र ने उत्तर दिया. “यह कार्य इतना सहज नहीं है जिसे कोई भी सिद्ध करले. यह कार्य कोई अन्य नहीं कर सकता. केवल आप ही हैं जो दैत्यगुरु के निकट पहुँच सकते हैं और उनके शिष्य बनकर इस अत्यंत दुष्कर कार्य को कर सकते हैं.”

“विस्तार से समझाएं, देव.” कच ने गंभीर भाव से कहा.

“आप महर्षि अंगिरा के वंशज और देवगुरु बृहस्पति के पुत्र हैं. दैत्यगुरु, भृगुवंशी और कविपुत्र हैं. आप उच्चकुल ब्राह्मण हैं और दैत्यगुरु भी ब्राह्मण कुल के भूषण हैं. आपके पितामह महर्षि अंगिरा, दैत्यगुरु शुक्राचार्य के गुरु रह चुके हैं. आपके पिता और दैत्यगुरु दोनों गुरु-भाई हैं. वे आपको अपने शिष्य के रूप में अवश्य स्वीकार करेंगे. किन्तु मुख्य कारण कुछ और है, कच.”

“तो फिर वह भी बता दें,” कच ने मुस्करा कर कहा.

“कारण का नाम है –देवयानी.” सुनकर कच कुछ चौंका. देवराज ने अग्निदेव को संकेत किया. अग्निदेव समझ गए और आगे आए. इससे पूर्व कच कुछ समझ पाए देवराज एक ओर हो गए और अग्निदेव कच के समक्ष खड़े थे.

अग्निदेव ने विस्तार से कहना प्रारम्भ किया, “देवयानी, दैत्यगुरु शुक्राचार्य की एकमात्र पुत्री है. वह उन्हें अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है. उसकी कोई बात वे नहीं टालते. यह समझ लो कि जिस कक्ष में मृत-संजीवनी विद्या रखी है उसके द्वार का नाम है –देवयानी. वह कन्या अपने सोलहवें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है. वह कोमलांगी, वाक्-प्रवीण तथा बुद्धिमती है. वह विशाल नेत्रों, लंबी नासिका और चन्द्र के समान मुख वाली है. उसकी देह लम्बी, आकर्षक तथा श्वेत वर्ण की है. उसका शरीर अंकुरित होते बीज के समान और उसके अंग स्फुरित होती कली के समान लगते हैं. उसे प्रसन्न किए बिना आप शुक्राचार्य तक नहीं पहुँच सकते. आपको सर्वप्रथम देवयानी को प्रभावित करना होगा. उसे अपनी कलाओं से प्रसन्न करेंगे तो स्वयं मृत-संजीवनी तक का मार्ग प्रशस्त होगा.” कच ने कुछ सोचा और अपने मन में सभी तथ्यों को परखा. अपने पिता की ही भांति वे भी देवताओं के विश्वासपात्र थे. देवों पर आई समस्या टालने के लिए वे जो बन पड़े कर सकते थे. उन्होंने गम्भीरता से हाँ में सर हिलाया और देवराज से आज्ञा ली.

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